बेआबरू इंसानियत
ज़लालत की ये अजब दास्ताँ है
सुन के बस कलेजा कांपता है
किसी मज़लूम, बेबस पे जो टूटे
ये जालिमों के ज़ुल्मों की इंतेहा है !
ज़लालत की ये अजब दास्ताँ है,
सुन के बस कलेजा कांपता है !
ज़माना इस हैवानियत पे हेराँ है
इसां, हालाते इंसानियत पे पशेमाँ है
बेआबरू हुई है वो, जो सरेआम मर्दों से
किसी मर्द की बहिन, बेटी और माँ है !
ज़लालत की ये अजब दास्ताँ है,
सुन के बस कलेजा कांपता है !
गुस्से में है इस मुल्क का हर बशर
अब तो छलक रहा है पैमाना -ए -सब्र
जो शहर था सल्तनत -ए -हिन्द कभी
लगता है वहां अब गिद्धों का बसेरा है !
ज़लालत की ये अजब दास्ताँ है,
सुन के बस कलेजा कांपता है !
सो रहे हैं हाकिम ऐश्गाहों में
अवाम है, बस खुदा की पनाहों में
खुलेआम लुट रहीं है जो इज्ज़तें
जुर्मों का जैसे मुसलसल कारवाँ है !
ज़लालत की ये अजब दास्ताँ है,
सुन के बस कलेजा कांपता है !
मुक़द्दस समझके जिसको है पूजा
औरत को दिया है देवी का दर्जा
बड़ा एहतेराम है दिले अहले वतन में
हम तो वतन को भी कहतें है , माँ …
ज़लालत की ये अजब दास्ताँ है,
सुन के बस कलेजा कांपता है !
Author: Samir Khan (समीर खान)