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औरत के मन की व्यथा

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सोचती हूँ , चलती हूँ और फिर दोड़ती हु मै ,
आशाओ निराशाओ से भी आगे कुछ देखती हु मै…!
पैदा हुई तो कुछ पर मुस्कुराहट और
बाकि सभी चेहरों पर दुःख देखती हूँ मै
अपने माँ बाप का प्यार तो मिला पर
समाज के उपहास को नित्य झेलती हूँ मै…!!
इस देश में धर्म के नाम पर नवरात्रों में पूजी जाती हूँ
और बाकी के बचे दिनों में गिद्धों सी नजरो से नोची जाती हूँ मै
एक ओर मर्दों के साथ कन्धा से कन्धा मिला चलने की आज़ादी मिल जाती,
पर दूसरी ओर बुर्के में खुलकर सांस लेने को तरस जाती हूँ मै…!!

अपनी ही सोच पर चलने के लिए पग-पग को तरस जाती हूँ मै
अनेकों सवालों का जवाब देकर ही एक कदम घर से निकाल पाती हूँ मै
अपने सपनो के आकाश से भी आगे उड़ना चाहती हूँ मै
पर समाज की बंदिशों के आगे अपने पंखो को नहीं खोल पाती हूँ मै…!!

ऐसा कोइ फ़र्ज़ नहीं जो अधूरा छोड़ती हूँ मै
फिर शादी के नाम पर क्यों दहेज़ देकर भी बेचीं जाती हूँ मै
मेरे अपने माँ बाप भी नहीं हिचकताते मेरी इस सोदेबाजी में ,
बिकने के बाद भी क्यों और पैसों के लिए नोची जाती हूँ मै…!!

नहीं लिख सकती में अपने बलात्कारो की कहानी
सिर्फ सोच कर ही ये बात डर से थर्रा जाती हूँ मै…!!

सोचती हूँ , चलती हूँ और फिर दोड़ती हु मै ,
आशाओ निराशाओ से भी आगे बहुत कुछ देखती हु मै…!!

पूछना चाहती हु मै इस समाज के ठेकेदारों से
करते है क्यों फर्क वो बेटा और बेटी में
दहेज़ की जेल में लड़की ही क्यों कैद की जाती है
पैदा होने से पहले ही क्यों लड़की से दुनिया छुडवा दी जाती है

क्यों… क्यों… क्यों… आखिर क्यों ?

 
Author: Mit Bhatt (मीत)
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