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Poet’s Corner

A collection of Poems. . . .

डमरू वाला

विष बदल जाये अमृत की धारा तिरस्कृत को भी स्नेह अपारा जटाजूट मृगछाल को धारा है अनूठा सौंदर्य तुम्हारा जय शिवशंकर जय बम भोले जय जय जय डमरू वाला ----- चाँद को माथे पे सजाया गंगा को सर पर बिठाया गले में सर्पमाल सजाया है अद्भुत रूप तुम्हारा जय…
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यह बिटिया प्यारी-सी

यह बिटिया प्यारी-सी लेकर जो खिलौना हाथ में एक सुन्दर-सा,,,, टहल रही है मेरे घर-आँगन के उपवन में , ज्यों थिरक रही हो कोई कलिका मंद हवा के झोंकों से किसी पौध की डाली में. होती है बिटिया घर-आँगन में झोंका एक अल्हड मस्त हवा का भी .... होकर…
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क्या सचमुच 'मैं' 'वह' नहीं हूँ , जो 'मैं' हूँ ?

शाम की गो-धूलि वेला में .... जब कर रही थी जुगलबंदी घर लौट रही गायों के गले में बंधी घंटियों की रुन-झुन मंदिरों की आरती में बज रही घंटियों के साथ , सोच रहा था मैं तब-भी और तब-भी जब प्रातः-वेला में तुलसी के चौबारे पर पूजा की थाली में दीप लिए…
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क्या सचमुच ‘मैं’ ‘वह’ नहीं हूँ , जो ‘मैं’ हूँ ?

शाम की गो-धूलि वेला में .... जब कर रही थी जुगलबंदी घर लौट रही गायों के गले में बंधी घंटियों की रुन-झुन मंदिरों की आरती में बज रही घंटियों के साथ , सोच रहा था मैं तब-भी और तब-भी जब प्रातः-वेला में तुलसी के चौबारे पर पूजा की थाली में दीप लिए…
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वह नन्हा पंछी

बूढ़े पेड़ के पास का पोखर सूखा था कल तक , रात के सन्नाटे में सुनकर पुकार दर्द से विव्हल पंछी की चाँद के आँसू बहे जब ओस बनकर सुबह देखा तो पोखर लबालब भरा हुआ था पानी से. ओट में सूखे पत्तों की तिनकों से बने एक जर्जर-से घोंसले में ठिठुरता हुआ…
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''छोटी-सी प्यारी-सी नन्ही-सी बिटिया''

रह-रह कर याद आती है वह छोटी-सी प्यारी-सी नन्ही-सी बिटिया बहुत, बार-बार.... मन-ही-मन मुसकराने वाली सारी दुनिया से न्यारी वह कोमल-सी छुटकी-सी फूलों-सी बिटिया. प्रश्न उठता है यह बार-बार क्यों होती है बेटी भाव-प्रवीणा बेटों की तुलना में कोमल,…
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”छोटी-सी प्यारी-सी नन्ही-सी बिटिया”

रह-रह कर याद आती है वह छोटी-सी प्यारी-सी नन्ही-सी बिटिया बहुत, बार-बार.... मन-ही-मन मुसकराने वाली सारी दुनिया से न्यारी वह कोमल-सी छुटकी-सी फूलों-सी बिटिया. प्रश्न उठता है यह बार-बार क्यों होती है बेटी भाव-प्रवीणा बेटों की तुलना में कोमल,…
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''भोलापन तेरी आँखों का''

भोलापन तेरी आँखों का , क्यूँ उतर-उतर आता है तेरे रस-भीगे ओंठों में, शब्द जो निकलना चाहते हैं... सकुचाकर दबे-दबे से क्यों ठहर-ठहर जाते हैं, रह जाते हैं मेरे मनोभाव टकटकी लगाए से, सिहर-सिहर जाते हैं क्यों स्वप्न मेरे उतरकर मेरी आँखों से…
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”भोलापन तेरी आँखों का”

भोलापन तेरी आँखों का , क्यूँ उतर-उतर आता है तेरे रस-भीगे ओंठों में, शब्द जो निकलना चाहते हैं... सकुचाकर दबे-दबे से क्यों ठहर-ठहर जाते हैं, रह जाते हैं मेरे मनोभाव टकटकी लगाए से, सिहर-सिहर जाते हैं क्यों स्वप्न मेरे उतरकर मेरी आँखों से…
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वह 'लड़की' याद आती है

उम्र की इस दहलीज पर जब देखकर हमें आईना भी बनाता है अपना मुँह, कुछ शरमाकर , कुछ इठलाकर मुसकराती-सी वह लड़की याद आती है .... जब हम भी थे कुछ उसी की तरह उसी की उम्र में...उसी की तरह सकुचाकर मुसकराने वाले. तब हम ऐसे थे..., जैसे कोई पंछी देखकर…
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