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मोदी राज में कितनी बदली भारतीय रेल …!

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​अक्सर न्यूज चैनलों के पर्दे पर दिखाई देता है कि अपनी रेल यात्रियों के लिए खास डिजाइन के कोच बनवा रही है। जिसमें फलां – फलां सुविधाएं होंगी। यह भी बताया जाता है कि जल्द ही ये कोच यात्रियों के सेवा में जुट जाएंगे। लेकिन हकीकत में तो ऐसे अत्याधुनिक कोचों से कभी सामना हुआ नहीं, अलबत्ता आम भारतीय की तरह रेल यात्रा का संयोग बन जाने पर मेरा साबका उसी रेलवे और ट्रेन से होता है जिसे चार दशक से देखता आ रहा हूं। 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान बुलेट ट्रेन की बड़ी चर्चा थी। हालांकि मेरी दिलचस्पी कभी इस ट्रेन के प्रति नहीं रही। लेकिन मोदी सरकार में जब रेल मंत्री का दायित्व काफी सुलझे हुए माने जाने वाले सुरेश प्रभु को मिला तो मुझे विश्वास हो गया कि बुलेट ट्रेन मिले न मिले, लेकिन हम भारतीयों को अब ठीक – ठाक रेलवे तो जल्द मिल जाएगी। जिसके सहारे इंसानों की तरह यात्रा करते हुए अपने गंतव्य तक पहुंचना संभव हो सकेगा। लेकिन पिछली कुछ रेल यात्राओं के अनुभवों के आधार पर मैं इतना कह सकता हूं कि चंद महीनों में रेलवे की हालत बद से बदतर हुई है। उद्घोषणा के बावजूद ट्रेन का प्लेटफार्म पर न पहुंचना। पहुंच गई तो देर तक न खुलना। किसी छोटे से स्टेशन पर ट्रेन को खड़ी कर धड़ाधड़ मालगाड़ी या राजधानी और दूसरी एक्सप्रेस ट्रेनें पास कराना आदि समस्याएं पिछले कुछ महीनों में विकराल रुप धारण कर चुकी है। कहीं पूरी की पूरी खाली दौड़ती ट्रेन तो कहीं ट्रेन में चढ़ने के लिए मारामारी । यह तो काफी पुरानी बीमारी है रेलवे की। जो अब भी कायम है। पिछले साल अगस्त में जबलपुर यात्रा का संयोग बना था। इस दौरान काफी जिल्लतें झेलनी पड़ी। लौटते ही अपनी आपबीती रेल मंत्री से लेकर तमाम अधिकारियों को लिख भेजा। इसका कोई असर हुआ या नहीं , कहना मुश्किल है। क्योंकि किसी ने भी कार्रवाई तो दूर प्राप्ति स्वीकृति की सूचना तक नहीं दी। । इस साल मार्च में होली के दौरान उत्तर प्रदेश जाने का अवसर मिला। संयोग से इसी दौरान प्रदेश में चुनावी बुखार चरम पर था।वाराणसी से इलाहाबाद जाने के लिए ट्रेन को करीब पांच घंटे इंतजार करना पड़ा। वाराणसी से ही खुलने वाली कामायिनी एक्सप्रेस इस सीमित दूरी की यात्रा में करीब घंटे भर विलंबित हो गई। वापसी में भी कुछ ऐसा ही अनुभव हुआ। प्लेटफार्मों पर किसी ट्रेन की बार – बार उद्घोषणा हो रही थी, तो कुछ ट्रेनों के मामलों में उद्घोषणा कक्ष की अजीब खामोशी थी। वापसी बीकानेर – कोलकाता साप्ताहिक सुपर फास्ट एक्सप्रेस से करनी थी। जो करीब पांच घंटे विलंब से प्लेटफार्म पर पहुंची। इस बीच स्टेशन के प्लेटफार्म पर एक खाकी वर्दी जवान को नशे की हालत में उपद्रव करते देखा। जीआरपी के व्वाट्सएप पर इस आशय का संदेश दिया। लेकिन आज तक कोई जवाब नहीं मिला। मध्य रात्रि ट्रेन इलाहाबाद से रवाना तो हो गई, लेकिन इसे मुगलसराय पहुंचने में करीब पांच घंटे लग गए।बहरहाल ट्रेन हावड़ा पहुंचा तो खड़गपुर की अगली यात्रा के लिए फिर टिकट लेने काउंटर पहुंचा। यहां मौजूद एक बुकिंग क्लर्क सीधे – साधे बिहारी युवक को दिए गए रेल टिकट के एवज में 60 रुपए अधिक झटक लिए। बेचारे युवक के काफी मिन्नते करने के बाद क्लर्क ने पैसे लौटाए। वापसी के बाद अपने ही क्षेत्र में फिर छोटी यात्रा करने की नौबत आई। लेकिन पता चला कि दो घंटे की दूरी तय करने वाली ट्रेन इससे भी ज्यादा समय विलंब से चल रही है। न ट्रेन के आने का समय न चलने का। यात्री बताने लगे कि ट्रेन रवानगी स्टेशन से ही लेट छूटी है। यह सब देख मन में सवाल उठा कि क्या रेलवे में अब भी जवाबदेही नाम की कोई चीज है। क्योंकि यह सब तो मैं चार दशक से देखता आ रहा हूं। फिर रेलवे में आखिर क्या बदला है। अंत में यही सोच कर संतोष कर लेना पड़ा कि इस देश में यदि सबसे सस्ता कुछ है तो वह आम नागरिकों का समय। कुछ साल पहले केंद्रीय रेल मंत्री सुरेश प्रभु चुनाव प्रचार के सिलसिले में मेरे शहर आए थे। अपने संभाषण में उन्होंने रेलवे की हालत पर गंभीर चिंता व्यक्त की। हाल की यात्राओं के अनुभव के मद्देनजर इतना कहा जा सकता है कि रेलवे की हालत वाकई चिंताजनक है।

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तारकेश कुमार ओझा

लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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