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अविवाद की कॉलर पकड़ते विवादी विवाद !

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पहले किसी दौर में मुद्दों को विवादित बनाने के लिए दबे-छुपे सयानेपन के साथ आपसदारी में उलझाने का चलन हुआ करता था | तब एक नैतिक शर्मदारी का तकाज़ा भी हुआ करता था जिसके चलते यह काम पर्दे की ओंट में छुपकर किसी आखेट के जैसा मुक़म्मल किया जाता था | तब विवाद हो गुजरने के बाद अ-विवादी को पता चलता था कि उसके खिलाफ हुआ यह विवाद पूर्व नियोजित था | मगर अब बदलते दौर के साथ मुद्दों से डील करने का ट्रेंड भी बदल चुका है | आज विवादों से खालिस चिरौरी नहीं की जाती | बल्कि उनसे खुले-आम कुश्ती-अखाड़ा लड़ा जाता है | उन्हें धौंस-धपट देकर दो-दो हाथ के रिंग में खींचा जाता है | उन पर वर्चस्वी सरोकार की बदनाम ख़म ठोकी जाती हैं | खुले-आम चुनौती देकर लड़ने-भिड़ने के लिए आमंत्रित किया जाता है | मां के दूध का वास्ता देकर उनको अपनी आरामगाह से गुस्सा दिलाकर बाहर खींचा जाता है | एक बाप की औलाद होने का वास्ता देकर उनका लहू खौलाया जाता है | इस पर भी यदि मुद्दे अपनी आरामगाह से क्रोध खाकर बाहर न निकलें तो उन्हें धिक्कारकर विवाद के नाम का धब्बा तक करार दे दिया जाता है | अब इतना सब-कुछ घट गुजरने के बाद भी कोई सहनशील खुद्दार किस्म का मुद्दा विवाद का चौला धारण कर बाहर कैसे नहीं निकलेगा ? वह बेचारा पल-पल की चुनौतियों से बिलबिलाकर अंतत अपने बिल से बाहर निकल ही आता है | और अपनी शहादत की ट्रैजिक कहानी खुद-ब-खुद लिखने लग पड़ता है |

लोगों द्वारा कई-बार संशय व्यक्त किया जाता है कि ‘कमाल है यार…कोई मुद्दा ही नहीं था, फिर भी विवाद हो गया !’ तब सवाल तो यह भी बनता है कि ‘कोई मुद्दा नहीं था…तभी तो विवाद का तंबू गाड़ा गया होगा ?’ ये उलटबांसी कौन समझेगा ? कोई मुद्दा विवाद बन गया तो बन गया | उसे अंततः विवाद बनना ही था | आजकल विवाद होने के लिए विवादस्पद मुद्दों का होना जरुरी थोड़े ही ना होता है | विवाद तो बे-बात भी हो सकते हैं | इस दौर में विवाद जंगल की उस सूखी खरपतवार की तरह होते हैं, जो आपस के घर्षण में जरा-सी चिंगारी मिलते ही एक-दूसरे के खिलाफ मुद्दाम ही सुलगने लगते हैं | और देखते ही देखते जंगल की आग की तरह चारों तरफ फैलने लगते हैं | तब उनके आग का दावानल बनते भी देर नहीं लगती | अब इस आग के दावानल से पानी का स्रोता तो फूटने से रहा | बेशक, इससे ख़ाक कर देने वाली चिंगारी, दम घोंट देने वाला कसैला-धुंवा और विश्वास का दिल दहला देने वाला जलजला ही तो बाहर निकलेगा । विवाद के पेड़ पर परस्पर सद्भावना के फल तो उगने से रहे ।

बात सहिष्णुता के सर्वप्रिय शोर से शुरू होती है और अचानक फुदककर विवाद के असहिष्णु पेड़ की ऊँची शाख पर चढ़ जा बैठती है । फिर उस विवाद से धर्म-संप्रदाय और जाति-वाति के पंगों का रुख कर लेते हैं । देखते ही देखते धार्मिक सौहार्द के कथित कंगूरों से विरोध और फतवे के पत्थर बरसने लगते हैं । फिर उस फतवों के प्रति-ज़वाब में संस्कारी विरोधों के नवाचारी सर्प फनफनाकर बाहर निकल आते हैं | फिर लगने लगता है असहमति और अविश्वास की दो कुख्यात पटरियों पर दौड़ रही विवादों की रेल दूर तलक सफ़र कर ही दम लेगी | और न भी करे तब भी उसके द्वारा काढी जा चुकी पटरियों के मार्गदर्शक संकेतक उसे अपने सौजन्यी आग्रहों के साथ लम्बी दूरी तक आमंत्रित करते रहेंगे ।

लेखक :- राजेश सेन

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