करती हूँ प्रतिकार तुम्हारा
मुझे दिखा दीन हीन तुम, अपना अहम बढ़ाते
कुचल मसल मेरी अस्मिता, तुम स्वयं का पुरुषार्थ दर्शाते
करती हूँ प्रतिकार तुम्हारा
पुत्र, भ्राता,स्वामी,सखा तुम नहीं अब नाथ मेरे
नही मैं अब धरा सी तुम्हे देव मान
सब कुछ चुपचाप सहूँगी
अब बंधन सब तोड़ मैं दरिया तूफानी सी बहूँगी
करती हूँ प्रतिकार तुम्हारा
है हक़ मुझको भी जीने का उतना ही
है हक़ मुझको शिक्षा का उतना ही
है हक़ मुझको स्वप्न देखने का उतना ही
कन्या तो हूँ पर अब दान नही दी जाऊँगी
मैं बालिका वधु ना कहलाऊँगी
और माफ़ करना अब तुम
कच्ची उम्र में मैं, माँ ना बन पाऊँगी
करती हूँ प्रतिकार तुम्हारा
नही अब करूंगी घूँघट, तोड़ फेकूंगी ये चूड़ियाँ
बेड़ियों से लगते हैं मुझको ये बिछिये ये पायल
तुम्हारे संस्कारों के भुलावे में ना मैं आऊँगी
ना रस्मों के छलावों से और छली जाऊँगी
तुम जो हाथ उठाओगे मुझ पर
मैं ना सातों वचन निभाऊँगी
जीवित व्यक्ति हूँ घुट घुट कर न मर पाऊंगी
करती हूँ प्रतिकार तुम्हारा
संग तुम्हारे चल सकती हूँ पीछे पीछे न चल पाऊँगी
तुम्हारे प्यार में खुद को होम न कर पाऊँगी
खुद ना हँसी तो तुम्हे कैसे खुश रख पाऊँगी
कैसे प्यार का नीड़ बनाऊँगी
करती हूँ प्रतिकार तुम्हारा
तुम्हारे अहम् के लिए खुद को ना मार पाऊँगी
संग तुम्हारे चल सकती हूँ पीछे पीछे न चल पाऊँगी
संग तुम्हारे चल सकती हूँ पीछे पीछे न चल पाऊँगी
Author: Manisha Verma (मनीषा)