माँ… तुम लौट आओ ना!

बटोही में बनाकर दाल
जीरे का छौंक लगाओ ना
बहुत भूखा हूँ चूल्हे की
गरम रोटी खिलाओ ना
दीवाली आ रही है माँ
नए कपड़े सिलाओ ना
माँ…तुम लौट आओ माँ।

बच्चों को पढ़ाकर
थककर तुम स्कूल से लौटो
अनर्गल मैं आलापों से
तुम्हें नाराज़ कर दूं तो
जैसे तब दिखाती थीं
वही गुस्सा दिखाओ ना
माँ…तुम लौट आओ माँ।

डूबकर घर- गृहस्ति में
उबरकर दुनियादारी से
अहर्निश जो सिखाया था
सहन का पाठ पढ़ाया था
उसी शब्दांश का छूटा
नया कोई अर्थ बताओ ना
माँ…तुम लौट आओ माँ।

वही सपनों की दुनिया थी
वही अपनों की दुनिया थी
बड़ा अभाव था फिर भी
बड़ी परिपूर्ण दुनिया थी
हमारे आज को आकर
वही दर्पण दिखाओ ना
माँ…तुम लौट आओ माँ।

अभी तक याद आँगन में
नहाती तितलियों के रंग
अभी तक सांस में ताज़ा
बचपनी गन्धहीन वो गंध
उन्ही पीले हजारी को
चमन में फिर उगाओ ना
माँ…तुम लौट आओ माँ।

चमक की चाह में खोकर
छाँव छोड़ आए थे
शहर में राह की खातिर
गॉंव छोड़ आए थे।
दहकता हो गया जीवन
सलिल छीटे लगाओ ना
माँ…तुम लौट आओ माँ।

कैसे बीत जाता है
किसी निर्माण का दिन भी
हाँ…वो आज ही तो था
तेरे निर्वाण का दिन भी
सो गए हैं साथ के सब पल तुम्हारे
इन्हें आकर जगाओ ना
माँ…तुम लौट आओ माँ!

सौजन्य से :- पंकज दीक्षित

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