किशोर मन की पीड़ा

ले लीजिए एक बार में, जो चाहे मेरा इम्तिहा.
मुझसे बार-बार की ये, आज़माइश नहीं होती.

दिल के ज़ज़्बे, मेरी आँखो मे पढ़कर देख लो.
सरेबाज़ार मुझसे इनकी, नुमाइश नहीं होती.ठोकर खाकर की सीखता है, इन्सा खड़ा होना.
मुझसे हर बार की बर्दाश्त, समझाइश नहीं होती.

जीना चाहता हूँ मैं, अपने उसूलो पे शर्तो पे.
मर-मर के हर बार, ये पैदाइश नहीं होती.

हज़ारो उम्मीदो को बोझ है, मेरे कंधो पर.
की कोशिश पर पूरी सबकी, ख्वाहिश नहीं होती.

मैं थक चुका हूं सबके, ख्वाबो तले जीता हुआ.
किसी परछाई तले जीने की अब, गुंजाइश नहीं होती.

Author: Atul Jain Surana

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