कलमयुग की तस्वीर

चेहरे खिले हैं कायरों के जरुर कोई वजह खास है,
षड्यंत्र के फंदे में जैसे हुनरबाज की छीन ली साँस है।
बेशर्म विधा को देखकर ताली बजा रहे हैं लोग,
अम्बर का सर झुक गया धरती भी उदास है।
सरेराह सरेआम लुट रही इंसानियत की रूह,
मानवता का रक्त पी रहे यह कैसी प्यास है।
कलम की मंडी में अब दलालों का ही जमावड़ा,
कोने में पड़ी योग्यता का उड़ रहा उपहास है।
कलमयुग में भी अग्निपरीक्षा दे रही पवित्र सीता,
अधर्म का होगा अंत रामराज्य की उसको भी आस है।
कलम की स्याही से रोज मुंह कर रहे काला,
पर निजाम इश्कबाज कह रहा यह कृष्णा की रास है।
हैवानियत के रंग से माथे पर सजा रहे हैं राज तिलक,
वो संवेदनाओं का ढोंग रच मासूमियत का नोंच रहे मांस है।
चंद सिक्कों के इशारों पर गढ़ रही हैं अब इबारतें,
ये भेद नहीं गुप्त हर कलमकार को भी अहसास है।
काबिलियत के शेर का अकेले कर नही सकते सामना,
अब सारे कुकुर साथ साथ एक दूसरे के आसपास हैं।

Author: Shweta Shukla

Shweta Shukla
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